रविवार, 2 दिसंबर 2007
नरेंद्र मोदी हारेंगे या उनके विचार
जब सुनीता विलियम्स अहमदाबाद में थी, तब मैं भी अपने काम से वहां गया हुआ था. कई दिनों से मेरे पास परजानिया फिल्म की वीसीडी पड़ी हुई थी, एक तन्हा रात मैंने वह फिल्म देखी. इसी बीच मैं अपने एक हमपेशा - रॉबिन डेविड की किताब सिटी ऑफ फियर भी पढ़ रहा था, जो उसने यहूदी होकर एक ऐसे मुहल्ले के बारे में लिखी है, जो हिंदू औऱ मुस्लिम आबादियों को काटती एक सड़क पर बना है. परजानिया और ये किताब शायद इसलिए उल्लेखनीय हैं कि ये किसी हिंदू या मुस्लिम के सच न होने के कारण अहमदाबाद के दंगों की शक्ल में हुए नरसंहार का थर्ड पार्टी अकाउंट है. दोनों ही गज़ब के काम हैं. जो बताते हैं कि किस तरह राज्य की सरकार और पुलिस इस नरसंहार में भागीदार थी.राबिन की तरह मेरी भी मां है, और परजानिया के नसीरूद्दीन शाह की तरह मेरा अपना परिवार भी, एक बेटा और एक बेटी भी. मुझे लगता है यहूदी या पारसी होने की बजाय नरसंहार की दरिंदगी को समझने के लिए एक गृहस्थ होना ज्यादा जरूरी है. मनुष्य होने के लिए भी. और जब आपका अपना परिवार होगा, और जिन बच्चों के लिए आप अपनी पृथ्वी, देश, शहर, मुहल्ला छो़ड़कर जाएंगे, तो शायद यही सोचकर वहां वे शांति से रहें, सुखी रहे, आनंद में रहें, समृद्धि में रहें. अगर सभी लोग रॉबिन की तरह हों और परजानिया के हीरो की तरह भी, तो शायद दंगे औऱ नरसंहार हो ही न. कम से कम भूकम्प के दो साल के भीतर तो नहीं ही हों. सिटी ऑफ फियर मैं अभी पूरी नहीं कर पाया हूं. इसी बीच आज एनडीटीवी इंडिया में नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू देखने को मिला. इंटरव्यू में जैसा कि नरेंद्र मोदी की आदत हो चुकी है, और ज्यादातर संघी नेता लोगों के बीच फैशन है, वे जुबान से ज्यादा शब्दों को जबड़ों से चबा कर बोलते हैं. वे चाल, चलन, चोला, चरित्र और च अक्षर के अन्य शब्दों का अनुप्रास प्रयोग देश को ठीक करने और चुनाव जीतने के लिए करते हैं. (पता नहीं किस मीडिया प्लानर की सलाह पर). वह गुजरात के दंगों को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी हमलों से जोड़कर देख रहे थे. वे कह रहे थे कि जैसे देश के दूसरे दंगा पीड़ितों के साथ हुआ है (1984 के दिल्ली दंगों का नाम लिया नमो ने), गुजरात के दंगा पीड़ितो के प्रति सौतेले बरताव का आरोप उन्होंने केंद्र सरकार पर लगाया. उन्होंने कहा मेरी सरकार ने जो भी चुनावी वायदे किये थे, पूरे किये. औऱ गुजराती जनता मुझे दुबारा चुनेगी क्योंकि मैं उनकी कसौटी पर खरा उतरा हूं. अल्पसंख्यक मामलों पर सरकार की भूमिका के बारे में लगभग सिटपिटाते हुए विजय त्रिवेदी ने सवाल पूछा तो कैंमरा उस मौन पर मंडराता रहा, जो नरेंद्र मोदी ने मेकअप की तरह अपनी चेहरे पर पहन रखा था. त्रिवेदी ने अगला सवाल पूछा तो नमो ने कहा कि आपकी जानकारी ग़लत है. और फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बड़ी बातें कहनी शुरू कर दी.क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं .....वे ये सब कह सकते हैं. आखिर गुजरात की जनता ने उन्हें चुना है. इसतरह से वे संविधान की आत्मा को प्रतिष्ठित कर पा रहे हों न कर पा रहे हों, पर गुजरात के लोगों ने उन्हें कमाया है. एक ऐसे लोकतंत्र ने जो अपने उस हिस्से को बेदखल करता है, खाने लगता है अपने नाखूनों और रक्तरंजित जबड़ों से, जो हाशिये पर है, जिसे शायद उतनी कुटिल पॉलिटिक्स नहीं आती, जो पढ़े लिखे नहीं हैं और जो बड़े धंधे नहीं करते.नमो इसलिए भी ऐसा कह सकते हैं क्योंकि उनको और उनकी राजनीति को चुनौती देने वाला एक भी शख्स सामने नहीं आया. जो गुजरात में शांति की बात गंभीरता से करता. जो उनकी दलीलों की कलई खोलता. जो उनकी आतंक की स्थापना पर सवाल खड़े करता. जो गुजरात का मांओं-बहनों और परजानिया के गुमे बच्चों को सवाल की तरह सामने ला खड़ा करता. जो पूछता कि नफरत की आग अवाम औऱ जम्हूरियत को कहां लेकर जाएगी. नमो ये सब हंसते हुए इसलिए भी कह सकते हैं, कि कांग्रेस और गांधीवादियों ने उनके खिलाफ ठीक से चूं तक नहीं की. वह उसूलों पर लड़ कर नहीं निहत्थे लोगों को मार कर और मरता देखकर विजेता बना है. गुजरात में चुनाव करीब हैं और नंमो लगभग हर चैनल पर अपनी उपलब्धियों का डंका पीटते दिखलाई देंगे. गुजरात की जनता और भाजपा के पटेल लोग भी ये बता देंगे कि नमो उनकी कसौटी पर कितने खरे या खोटे उतरे हैं.मैं नरेंद्र मोदी व्यक्ति के बारे में सोच रहा था. वह कैसे सोता है. क्या नींद की गोलियां लेनी पड़ती हैं. क्या रामदेव टाइप कोई महाराज की जड़ी बूटी योग प्राणायाम की मदद ली जाती है. जैसे मनोविज्ञानी बोलते हैं कि नींद नहीं आ रही तो सोचो कि बकरियों के बाड़े को एक के बाद बकरी पार कर रही है. उन्हें गिनो. नमो क्या गिनते हैं जब उन्हें नींद नहीं आती. उसके कौन सगे संबंधी हैं. क्या उसके बाल बच्चे होते तो क्या गुजरात में परजानिया जैसे हजारों किस्से होते. क्या नरेंद्र मोदी को अपनी जिंदगी में किसी औरत का प्यार मिल सकता. नमो का बचपन कैसा रहा. उसके साथ क्या कुछ कभी बुरा हुआ जिसके कारण उसके मुख्यमंत्रित्वकाल में वह सब हुआ जिसके बारे में पूर्व गृह मंत्री औऱ जंग खाए लौहपुरुष मुरीद हैं और मेरी 51 कविताएं के लेखक क्षुब्ध. क्या ऐसा संभव है कि गृहस्थ हुए बगैर आप राजधर्म का निर्वहन कर सकते हैं. खास तौर पर अगर आप पुरूष हों. वे कह रहे हैं कि राज्य में आज पूरी तरह से शांति है और विकास का भारी माहौल है. दंगों में उजड़े लोगों ने ऐसा कोई हलफनामा दिया हो तो उसकी कोई खबर नहीं. जिस गोधरा को लेकर नमो की साबरमती एक्सप्रेस गांधीनगर पंहुची थी, वही अभी तक संदिग्ध है कि डिब्बे में आग भीतर से लगी थी या बाहर से. सोहराबुद्दीन मामले में भी साफ हुआ है कि गुजरात में पुलिस, सच, और अच्छे प्रशासन के बीच के संबंध कोई बहुत मधुर नहीं है.नरेंद्र मोदी जिस रामनाम पर गुजरात में वोट मांग रहे हैं इसबार यूपी के चुनाव में अयोध्या की जिला भाजपा ने उनके वहां चुनाव प्रचार करने के लिए पधारने से मना करवा दिया था. नमो तीसरा टर्म भी जीत सकते हैं. लोकतंत्र बहुमत से चलता है. क्योंकि उनका कोई विरोध नहीं है, इसलिए उनकी जीत आसान है. पर अगर वे हार भी जाए, तो गुजरात में कुछ बदलने वाला नहीं. हो सकता है पार्टी के भितरघाती ही मोदी को हरवा दें. हालांकि ये भी आसान नहीं.क्या ये दिलचस्प है कि नफरत के वोटबैंक पर गुजरात के साथ पाकिस्तान और अमेरिका भी जल्द ही चुनाव देखेंगे. जिस मियां मुश को लेकर नमो पिछली बार चुनाव में उतरे थे, इसबार उनकी हालत भी कुछ पतली है. और उधर जॉर्ज डबल्यू बुश की रिपब्लिकन पार्टी भी... जिसने नमो को गुजरात में हुए नरसंहार के कारण वीजा देने से मना कर दिया था. हर जगह मनुष्य होने की, एक ग़लत नेता के लिए शहीद होने की, एक ग़लत नेता के कारण शिकार होने की, एक ग़लत नेता चुनने के खामियाजों की हजारों गाथाएं हैं. वे भी जो परजानिया की तरह पारसी और रॉबिन की तरह यहूदी नहीं है. पर उनके और बाकी हिंदू- मुसलिमों की तरह इंसान हैं.मोदी को हराने का तरीका धोखा नहीं. धोखे से फिर जो सत्ता में आएगा, वैसा ही हो जाएगा. उसका तरीका उन सवालों को ललकार कर, उन बातों को ग़लत साबित कर, उन धारणाओं को चुनौती देना है, ताकि नमो हारे न हारे, वे विचार जरूर बेलगाम न हों, जो लोकतंत्र और सत्ता के बीच अवैध संबंधों के कारण जन्म लेते हैं. वे सवाल अपने लिए ख़ूनी जबड़ों के खिलाफ इंसानी जुबान तलाश कर रहे है.
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