शनिवार, 15 दिसंबर 2007

मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी


गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए दूसरे चरण के मतदान को अब 24 घंटे से भी कम का समय बचा है। खबरी सोचता है कि इस बार के गुजरात विधानसभा चुनाव सत्‍तर और अस्‍सी के दशक के लोकसभा चुनाव से काफी मिलते जुलते हैं। तब तानाशाह इंदिरा गांधी का वन मैन शो चलता था और इमरजेंसी के बाद तो इंदिरा वर्सेज आल का नारा बुलंद हुआ था। उस दौर में कांग्रेसी दलील दिया करते थे इंदिरा इज़ कांग्रेस एंड कांग्रेस इज़ इंदिरा। लगता है आज इतिहास खुद को दोहरा रहा है गुजरात में नरेन्‍द्र मोदी के रूप में। गुजरात में मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी का फार्मला चल रहा है। वही शैली, वही अदा, वही जनता से सीधा संवाद, वही तल्‍खी, वही भीड़ से अलग दिखने की अदा। कहीं नरेन्‍द्र मोदी इंदिरा गांधी को कापी तो नहीं कर रहे हैं। खबरी का उत्‍तर है- हां। अगर मोदी चुनाव जीत गए तो मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी का फार्मला सुपर हिट हो जाएगा ।

इं‍दिरा और मोदी में समानताएं

दोनों ही जिद़दी हैं और दोनों की सैली तानाशाह सरीखी है।
दोनों के खिलाफ विपक्षी लामबंद हो गए। तब इंदिरा वर्सेस आल और अभी मोदी वर्सेज आल।
दोनों के खिलाफ अपनी ही पार्टी के लोगों ने बगावत की थी। तब मोराराजी देसाई, चौधरी चरण‍सिंह और बाबू जगजीवन राम ने पार्टी छोडी थी और अभी सुरेश मेहता, शंकरसिंह वाघेला आदि ने।
दोनों के अल्‍पसंख्‍यकों का दमन किया। एक ने करवाया था आपरेशन ब्‍लू स्‍टार दूजे ने गोधरा कांड के बाद हुए दंगे को रोकने में राजधर्म का पालन नहीं किया।
दोनों में जनता को अपनी ओर खींचने और उनसे संवाद की अनोखी शैली है।
अंतिम समानता इस लेख के अंत में ।

मोदी वर्सेज आल


गुजरात के राजनीति इतिहास में यह पहला मौका है जब चुनाव में दोनों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पक्षों के लिए एक ही मुद्दा है और वह है मुख्‍यमंत्री नरेन्‍द्र मोदी। भाजपा का सारा प्रचार अभियान, केम्‍पेन और विज्ञापन सभी मोदी के इर्द-‍गिर्द ही धूम रहे हैं। यानी गुजरात में मोदी आधारित चुनाव लड़ा जा रहा है। क्‍या गुजरात के साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों को मोदी चाहिए अथवा नहीं चाहिए के मुद़दे पर ही मतदान करना है। इतिहास गवाह है गुजरात के चुनाव में लहर होती है। इस चुनाव में अभी तक तो कोई लहर नहीं है। इस चुनाव में लगता है लहर अंतिम समय पर ही चलेगी। मोदी चा‍हिए अगर यह मुद़दा चला तो सारे गुजरात में चलेगा और नहीं चला तो सारे गुजरात में नहीं चलेगा। इससे एक बात तो तय लगती है कि जिसे सत्‍ता मिलेगी पूर्ण बहुमत के साथ मिलेगी। अगर हम शुरआती संकेतों की बात करें तो गुजरात को मोदी चाहिए का मुद़दा चलने की संभावना सबसे ज्‍यादा लगती है।

असंतुष्‍टों के कंधे पर कांग्रेस की बंदूक

पिछले एक वर्ष से कांग्रेस मोदी विरोधियों और भाजपा के असंतुष्‍टों के कंधे पर बंदूक रखकर गुजरात के सिंहासन को साधने में लगी थी। भाजपा के ये लोग सरकार चलाने की मोदी की तानाशाही शैली से नाराज थे। गुटों में बंटी कांग्रेस के लिए यह कम उपलब्धि नहीं है कि तमाम संभावनाओं के विपरीत उसने भाजपा को इस चुनाव में कड़ी चुनौती दी है। अब यह बात अलग है कि इसके लिए उसे भाजपा के असंतुष्‍टों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा है। अन्‍यथा एक साल पहले तो यहां तक कहा जा रहा था कि मोदी बड़ी ही आसानी से अगला चुनाव जीत जाएंगे।
टिकिट वितरण को लेकर दोनों ही प्रमुख दलों में अंतिम समय तक घमासान मचा रहा। चुनाव को मोदी वर्सेज आल करने के लिए कांग्रेस ने यूपीए के घटल दलों सहित भाजपा के असंतुष्‍टों को अपने में मिला लिया। इस कारण टिकिट वितरण में काफी असंतोष ही हुआ और असंतुष्‍टों को भी ऐन वक्‍त पर ही टिकिट मिल पाया।
इसके ठीक विपरीत भाजपा के लिए कुछ भी अच्‍छा नहीं था। भाजपा के कार्यकर्ताओं और व‍रिष्‍ठ नेताओं की नाराजगी, संघ परिवार, विश्‍व हिन्‍दू परिषद, किसान संघ का असहयोग, मीडिया और चुनाव आयोग के अंकुश से भाजपा काफी पस्‍त हो गई थी लेकिन अरूण जेटली ने दिल्‍ली से इलेक्‍शन मैनेजर्स की पूरी फौज गुजरात में लगा दी। अरूण जेटली पिछले कई सप्‍ताह से गुजरात में डेरा डाले हुए हैं ।

विकास का मुद़दा कहीं हेवी सेलिंग जैसा तो नहीं

गुजरात का चुनाव विकास के मुद़दे पर ही लड़ने की बारम्‍बार घोषणाएं भाजपा के आला नेता पिछले दो महीने से करते आए थे। इसलिए नरेन्‍द्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत भी विकास के नारे से की। उन्‍होंने इसमें विकसित गुजरात, म‍हिलाओं, आदिवासियों के कल्‍याण सहित अपने समस्‍त प्रयासों को जनता के सामने रखा भी लेकिन जनता इससे कुछ प्रभावित भी हुई लेकिन कोई खास रिसपोन्‍स नहीं मिला और मिलना भी नहीं था। कारण कि अभी तक विकास के आधार पर इस देश में तो किसी सरकार ने चुनाव नहीं जीता है। हकीकत तो यह है भाजपा कभी भी विकास को चुनावी मुद़दा बनाना ही नहीं चाहती थी। कारण कि भाजपा को विकास ने नारे का हश्र पता है किस प्रकार पिछले लोकसभा चुनाव में शाइनिंग इंडिया के नारे की हवा निकल गई थी और अटलजी को सत्‍ता से हाथ धोना पड़ा था।

विकास से कांग्रेस को भ्रमित कर हिन्‍दुत्‍व की गोलाबारी

भाजपा का विकास का नारा कांग्रेस को भ्रमित करने की रणनीति का एक हिस्‍सा था। कांग्रेस इसके भ्रम में आ गई कि भाजपा इस चुनाव में विकास को मुद़दा बनागी। यह उसकी एक बड़ी रणनीतिक भूल भी है। युदध के मैदान में जब आपके लड़ाकू विमान, टैंक रेजीमेंट या पैराट्रूपर्स मूव करते हैं तो उनकी हलचल और टैंको के चलने की आवाज को छुपाने के लिए तोपखाने से भारी गोलाबारी की जाती है। इससे दुश्‍मन का ध्‍यान गोलबारी की ओर ही लगा रहता है, उसे टैंको के आने की खबर तभी मिल पाती है जब वह बिल्‍कुल ही सामने आ जाता है।
मोदी शुरुआत से हिन्‍दुत्‍व को ही चुनावी मुद़दा बनाना चाहते थे पर उसमें खतरा यह था कि कांग्रेस उसका काउन्‍टर अटैक कर देती। भाजपा ने रणनीति के मुताबिक कांग्रेस को विकास की गोलबारी में इतना उलझा दिया कि उसे लगने लगा कि कहीं विकास के मुद़दे पर मोदी कहीं चुनाव ही जीत लें। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने विकास के मुद़दे को भटकाने के लिए और मीडिया का ध्‍यान अपनी ओर करने के लिए सोहराबुददीन का मामला छेड़ दिया और मोदी को सोनिया के मुंह से कहलवा दिया मौत का सौदागर। कांग्रेस इस बयान से भी बार- बार अलटती-पलटती रही। भाजपा या कहें कि मोदी चाहते ही यही थे। कांग्रेस ने जैसे ही मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए जैसे ही सोहराबुददीन की एलओसी क्रास की मोदी ने अपने हिन्‍दुत्‍व के जंगी जहाज से उड़ान भरी और अपने भाषणों की बम बार्डिंग कांग्रेस पर शुरु कर दी।

गुजराती मुस्लिम तुष्टिकरण से नाराज


गुजरात से साढ़े पांच करोड़ गुजराती मोदी के भाषणों से प्रभावित हुए हैं ऐसा भी नहीं है परन्‍तु सोनिया की सभाओं के बाद उन्‍हें ऐसा लगने लगा कि मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जा सकती है और इस बारे में लगाए गए भाजपा के आरोप सही हैं। गुजरात का बहुसंख्‍यक मतदाता यह सह नहीं सकता कि कांग्रेस उसकी उपेक्षा कर मुस्लिमों को खुश करे। चूंकि उसके पास इसके खिलाफ एक ही शस्‍त्र है और वह है नरेन्‍द्र मोदी। जब तक कांग्रेस अल्‍पसंख्‍यकों को लुभाने के लिए गुजरा‍तियों की उपेक्षा करती रहेगी तब तक नरेन्‍द्र मोदी का हरा पाना उसके लिए मुश्किल रहेगा।

मोदी ने कांग्रेस के खिलाफ मनोवैज्ञानिक युद़ध भी चला रखा है। मोदी ने यह लगभग सा सिद़ध कर दिया है कि उनके खिलाफ की गई कोई भी टिप्‍पणी गुजरात और वहां के साढ़े पांच करोड गुजरातियों का अपमान है। इसलिए वे सभाओं में कहते हैं कि यह गुजरात का अपमान है, यह गुजरात को गाली दी गई है।
मोदी ही भाजपा है यह नारा पिछले दो साल से उछल रहा है चुनाव आते ही मोदी ने नया नारा चलाया जीतेगा गुजरात। इसमें नारे में वे अपना प्रतिबिम्‍ब देखते रहे। भाजपा के नेताओं की आंख में यह नारा खटका भी लेकिन मोदी ने यह कहकर सभी को चुप कर दिया जीत का रास्‍ता इसी नारे से होकर जाता है। इसके बाद भाजपा आलाकमान के पास भी चुप रहने के अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं था।

मोदी विरोधी बातें भी सुन रही है जनता


गुजरात में मोदी की सभाओं में बड़ी भीड़ उमड़ी और मोदी की बातों से लोग काफी प्रभावित भी दिखे। जतना से सीधे बात करते हुए अपनी बातें उनके मुंह से कहलाने का मोदी ने बड़ा अच्‍छा प्रयोग किया लेकिन इसका कदापि यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि जनता मोदी विरोधी बातें नहीं सुनना ही चाहती। मोदी विरोधी सभाओ में भी काफी भीड़ उमड़ी है।
कांग्रेस अध्‍यक्षा सोनिया गांधी ने गुजरात के चुनाव को काफी महत्‍व देते हुए काफी समय निकाला और कोई एक दर्जन चुनावी रैलियों को संबोधित किया। इनमें लाखों की संख्‍या में लोगों ने हिस्‍सा लिया और सोनिया की बातों को बड़े ही गौर से सुना। इसी तरह सरदार पटेल उत्‍कर्ष समिति के बैनर तले भाजपा के बागी गोवर्धन झड़‍पिया और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की सौराष्‍ट्र के विभिन्‍न जिलों में हुईं सभाएं भी प्रभावी रहीं। इसी के कारण भाजपा को सौराष्‍ट्र में कुछ सीटें गंवानी पड़ सकती हैं। अगर दूसरे चरण में भी कुछ ऐसा ही चला तो कहा जा सकता है जनता को मोदी नहीं परिवर्तन चाहिए।

मोदी का चुनावी जुआं

मोदी ने लिए इस बार एक चुनावी जुआं भी खेला है। पार्टी, संघ,विहिप कोई भी उनके साथ नहीं हैं सिर्फ और सिर्फ मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। शहरी इलाकों में मोदी के पक्ष में माहौल दिखता है। अगर यही स्थिति गावों खासकर मध्‍य गुजरात के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में रही तो मोदी ही चाहिए का मुद़दा काफी प्रभावी हो जाएगा। और भाजपा को पूरे बहुमत के सा‍थ सत्‍ता मिलेगी। आंखों में सत्‍ता सुंदरी का सपना संजोए मोदी विरोधी नेता शंकरसिंह वाघेला, भरतसिंह सोलंकी,गोवर्धन झड़पिया मानते हैं कि मोदी के विकास के मुद़दे का हश्र चंद्राबाबू नायडू और शाइनिंग इं‍डिया के नारे की तरह ही होगा।

मोदी का मै‍जिक चलेगा क्‍या

अब तो 23 दिसंबर को ही पता चलेगा कि गुजरात को मोदी चाहिए या नही। मोदी का मैजिक अथवा मास हिस्‍टेरिया चलेगा या नहीं। इल सभी के बीच एक बात तय है कि गुजरात के इतिहास में पहली बार हो रहे मुद़दा या लहर विहीन चुनाव में एक व्‍यक्ति ने अपने मैजिक से सरगरर्मी ला दी। अब नतीजा चाहे जो भी हो। जीते तो गुजरात का ताज, बाद में भाजपा का भी। साथ में इं‍दिरा गांधी जैसे एक और करिश्‍माई नेता का तमगा वो भी बिल्‍कुल मुफ़त। इस सारे सवालों के बीच दांव पर लगा है भाजपा का भविष्‍य। अगर ये चुनाव जीते तो अगले साल होने वाले लोकसभा ओर दस राज्‍यों के विधानसभा चुनाव का रास्‍ता काफी आसान हो जाएगा अन्‍यथा मोदी और भाजपा दोनों का पतन तय है ।
खबरी ने बात इंदिरा गांधी ने शुरु की थी तो समाप्‍त भी इंदिरा गांधी से।

इं‍दिरा और मोदी में अंतिम समाइंदिरा गांधी ने सेवादल सहित कांग्रेस के सभी संगठनों को खत्‍म कर दिया । इसके बाद अपने नाम से ही नई कांग्रेस खड़ी कर ली । मोदी भी इसी रास्‍ते पर चल चुके हैं वे संघ और विहिप को खत्‍म करने की ओर अग्रसर हैं । इसी वजह से भी संघ और विहिप इस चुनाव में उनके साथ नहीं दिख रहे हैं ।
सवाल -इं‍दिरा गांधी रूल बुक के हिसाब से मोदी का अगला कदम क्‍या होगा
जवाब- भाजपा मोदी का गठन------
copyright/कापीराइट @ ट्रेड एग्रीमेंट आन इंट्रक्‍चुअल प्रापर्टी राइट एक्‍ट

मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी




गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए दूसरे चरण के मतदान को अब 24 घंटे से भी कम का समय बचा है। खबरी सोचता है कि इस बार के गुजरात विधानसभा चुनाव सत्‍तर और अस्‍सी के दशक के लोकसभा चुनाव से काफी मिलते जुलते हैं। तब तानाशाह इंदिरा गांधी का वन मैन शो चलता था और इमरजेंसी के बाद तो इंदिरा वर्सेज आल का नारा बुलंद हुआ था। उस दौर में कांग्रेसी दलील दिया करते थे इंदिरा इज़ कांग्रेस एंड कांग्रेस इज़ इंदिरा। लगता है आज इतिहास खुद को दोहरा रहा है गुजरात में नरेन्‍द्र मोदी के रूप में। गुजरात में मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी का फार्मला चल रहा है। वही शैली, वही अदा, वही जनता से सीधा संवाद, वही तल्‍खी, वही भीड़ से अलग दिखने की अदा। कहीं नरेन्‍द्र मोदी इंदिरा गांधी को कापी तो नहीं कर रहे हैं। खबरी का उत्‍तर है- हां। अगर मोदी चुनाव जीत गए तो मोदी इज़ बीजेपी एंड बीजेपी इज़ मोदी का फार्मला सुपर हिट हो जाएगा ।

इं‍दिरा और मोदी में समानताएं

दोनों ही जिद़दी हैं और दोनों की सैली तानाशाह सरीखी है।
दोनों के खिलाफ विपक्षी लामबंद हो गए। तब इंदिरा वर्सेस आल और अभी मोदी वर्सेज आल।
दोनों के खिलाफ अपनी ही पार्टी के लोगों ने बगावत की थी। तब मोराराजी देसाई, चौधरी चरण‍सिंह और बाबू जगजीवन राम ने पार्टी छोडी थी और अभी सुरेश मेहता, शंकरसिंह वाघेला आदि ने।
दोनों के अल्‍पसंख्‍यकों का दमन किया। एक ने करवाया था आपरेशन ब्‍लू स्‍टार दूजे ने गोधरा कांड के बाद हुए दंगे को रोकने में राजधर्म का पालन नहीं किया।
दोनों में जनता को अपनी ओर खींचने और उनसे संवाद की अनोखी शैली है।
अंतिम समानता इस लेख के अंत में ।

मोदी वर्सेज आल


गुजरात के राजनीति इतिहास में यह पहला मौका है जब चुनाव में दोनों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पक्षों के लिए एक ही मुद्दा है और वह है मुख्‍यमंत्री नरेन्‍द्र मोदी। भाजपा का सारा प्रचार अभियान, केम्‍पेन और विज्ञापन सभी मोदी के इर्द-‍गिर्द ही धूम रहे हैं। यानी गुजरात में मोदी आधारित चुनाव लड़ा जा रहा है। क्‍या गुजरात के साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों को मोदी चाहिए अथवा नहीं चाहिए के मुद़दे पर ही मतदान करना है। इतिहास गवाह है गुजरात के चुनाव में लहर होती है। इस चुनाव में अभी तक तो कोई लहर नहीं है। इस चुनाव में लगता है लहर अंतिम समय पर ही चलेगी। मोदी चा‍हिए अगर यह मुद़दा चला तो सारे गुजरात में चलेगा और नहीं चला तो सारे गुजरात में नहीं चलेगा। इससे एक बात तो तय लगती है कि जिसे सत्‍ता मिलेगी पूर्ण बहुमत के साथ मिलेगी। अगर हम शुरआती संकेतों की बात करें तो गुजरात को मोदी चाहिए का मुद़दा चलने की संभावना सबसे ज्‍यादा लगती है।

असंतुष्‍टों के कंधे पर कांग्रेस की बंदूक

पिछले एक वर्ष से कांग्रेस मोदी विरोधियों और भाजपा के असंतुष्‍टों के कंधे पर बंदूक रखकर गुजरात के सिंहासन को साधने में लगी थी। भाजपा के ये लोग सरकार चलाने की मोदी की तानाशाही शैली से नाराज थे। गुटों में बंटी कांग्रेस के लिए यह कम उपलब्धि नहीं है कि तमाम संभावनाओं के विपरीत उसने भाजपा को इस चुनाव में कड़ी चुनौती दी है। अब यह बात अलग है कि इसके लिए उसे भाजपा के असंतुष्‍टों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा है। अन्‍यथा एक साल पहले तो यहां तक कहा जा रहा था कि मोदी बड़ी ही आसानी से अगला चुनाव जीत जाएंगे।
टिकिट वितरण को लेकर दोनों ही प्रमुख दलों में अंतिम समय तक घमासान मचा रहा। चुनाव को मोदी वर्सेज आल करने के लिए कांग्रेस ने यूपीए के घटल दलों सहित भाजपा के असंतुष्‍टों को अपने में मिला लिया। इस कारण टिकिट वितरण में काफी असंतोष ही हुआ और असंतुष्‍टों को भी ऐन वक्‍त पर ही टिकिट मिल पाया।
इसके ठीक विपरीत भाजपा के लिए कुछ भी अच्‍छा नहीं था। भाजपा के कार्यकर्ताओं और व‍रिष्‍ठ नेताओं की नाराजगी, संघ परिवार, विश्‍व हिन्‍दू परिषद, किसान संघ का असहयोग, मीडिया और चुनाव आयोग के अंकुश से भाजपा काफी पस्‍त हो गई थी लेकिन अरूण जेटली ने दिल्‍ली से इलेक्‍शन मैनेजर्स की पूरी फौज गुजरात में लगा दी। अरूण जेटली पिछले कई सप्‍ताह से गुजरात में डेरा डाले हुए हैं ।

विकास का मुद़दा कहीं हेवी सेलिंग जैसा तो नहीं

गुजरात का चुनाव विकास के मुद़दे पर ही लड़ने की बारम्‍बार घोषणाएं भाजपा के आला नेता पिछले दो महीने से करते आए थे। इसलिए नरेन्‍द्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत भी विकास के नारे से की। उन्‍होंने इसमें विकसित गुजरात, म‍हिलाओं, आदिवासियों के कल्‍याण सहित अपने समस्‍त प्रयासों को जनता के सामने रखा भी लेकिन जनता इससे कुछ प्रभावित भी हुई लेकिन कोई खास रिसपोन्‍स नहीं मिला और मिलना भी नहीं था। कारण कि अभी तक विकास के आधार पर इस देश में तो किसी सरकार ने चुनाव नहीं जीता है। हकीकत तो यह है भाजपा कभी भी विकास को चुनावी मुद़दा बनाना ही नहीं चाहती थी। कारण कि भाजपा को विकास ने नारे का हश्र पता है किस प्रकार पिछले लोकसभा चुनाव में शाइनिंग इंडिया के नारे की हवा निकल गई थी और अटलजी को सत्‍ता से हाथ धोना पड़ा था।

विकास से कांग्रेस को भ्रमित कर हिन्‍दुत्‍व की गोलाबारी

भाजपा का विकास का नारा कांग्रेस को भ्रमित करने की रणनीति का एक हिस्‍सा था। कांग्रेस इसके भ्रम में आ गई कि भाजपा इस चुनाव में विकास को मुद़दा बनागी। यह उसकी एक बड़ी रणनीतिक भूल भी है। युदध के मैदान में जब आपके लड़ाकू विमान, टैंक रेजीमेंट या पैराट्रूपर्स मूव करते हैं तो उनकी हलचल और टैंको के चलने की आवाज को छुपाने के लिए तोपखाने से भारी गोलाबारी की जाती है। इससे दुश्‍मन का ध्‍यान गोलबारी की ओर ही लगा रहता है, उसे टैंको के आने की खबर तभी मिल पाती है जब वह बिल्‍कुल ही सामने आ जाता है।
मोदी शुरुआत से हिन्‍दुत्‍व को ही चुनावी मुद़दा बनाना चाहते थे पर उसमें खतरा यह था कि कांग्रेस उसका काउन्‍टर अटैक कर देती। भाजपा ने रणनीति के मुताबिक कांग्रेस को विकास की गोलबारी में इतना उलझा दिया कि उसे लगने लगा कि कहीं विकास के मुद़दे पर मोदी कहीं चुनाव ही जीत लें। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने विकास के मुद़दे को भटकाने के लिए और मीडिया का ध्‍यान अपनी ओर करने के लिए सोहराबुददीन का मामला छेड़ दिया और मोदी को सोनिया के मुंह से कहलवा दिया मौत का सौदागर। कांग्रेस इस बयान से भी बार- बार अलटती-पलटती रही। भाजपा या कहें कि मोदी चाहते ही यही थे। कांग्रेस ने जैसे ही मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए जैसे ही सोहराबुददीन की एलओसी क्रास की मोदी ने अपने हिन्‍दुत्‍व के जंगी जहाज से उड़ान भरी और अपने भाषणों की बम बार्डिंग कांग्रेस पर शुरु कर दी।

गुजराती मुस्लिम तुष्टिकरण से नाराज


गुजरात से साढ़े पांच करोड़ गुजराती मोदी के भाषणों से प्रभावित हुए हैं ऐसा भी नहीं है परन्‍तु सोनिया की सभाओं के बाद उन्‍हें ऐसा लगने लगा कि मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जा सकती है और इस बारे में लगाए गए भाजपा के आरोप सही हैं। गुजरात का बहुसंख्‍यक मतदाता यह सह नहीं सकता कि कांग्रेस उसकी उपेक्षा कर मुस्लिमों को खुश करे। चूंकि उसके पास इसके खिलाफ एक ही शस्‍त्र है और वह है नरेन्‍द्र मोदी। जब तक कांग्रेस अल्‍पसंख्‍यकों को लुभाने के लिए गुजरा‍तियों की उपेक्षा करती रहेगी तब तक नरेन्‍द्र मोदी का हरा पाना उसके लिए मुश्किल रहेगा।

मोदी ने कांग्रेस के खिलाफ मनोवैज्ञानिक युद़ध भी चला रखा है। मोदी ने यह लगभग सा सिद़ध कर दिया है कि उनके खिलाफ की गई कोई भी टिप्‍पणी गुजरात और वहां के साढ़े पांच करोड गुजरातियों का अपमान है। इसलिए वे सभाओं में कहते हैं कि यह गुजरात का अपमान है, यह गुजरात को गाली दी गई है।
मोदी ही भाजपा है यह नारा पिछले दो साल से उछल रहा है चुनाव आते ही मोदी ने नया नारा चलाया जीतेगा गुजरात। इसमें नारे में वे अपना प्रतिबिम्‍ब देखते रहे। भाजपा के नेताओं की आंख में यह नारा खटका भी लेकिन मोदी ने यह कहकर सभी को चुप कर दिया जीत का रास्‍ता इसी नारे से होकर जाता है। इसके बाद भाजपा आलाकमान के पास भी चुप रहने के अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं था।

मोदी विरोधी बातें भी सुन रही है जनता


गुजरात में मोदी की सभाओं में बड़ी भीड़ उमड़ी और मोदी की बातों से लोग काफी प्रभावित भी दिखे। जतना से सीधे बात करते हुए अपनी बातें उनके मुंह से कहलाने का मोदी ने बड़ा अच्‍छा प्रयोग किया लेकिन इसका कदापि यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि जनता मोदी विरोधी बातें नहीं सुनना ही चाहती। मोदी विरोधी सभाओ में भी काफी भीड़ उमड़ी है।
कांग्रेस अध्‍यक्षा सोनिया गांधी ने गुजरात के चुनाव को काफी महत्‍व देते हुए काफी समय निकाला और कोई एक दर्जन चुनावी रैलियों को संबोधित किया। इनमें लाखों की संख्‍या में लोगों ने हिस्‍सा लिया और सोनिया की बातों को बड़े ही गौर से सुना। इसी तरह सरदार पटेल उत्‍कर्ष समिति के बैनर तले भाजपा के बागी गोवर्धन झड़‍पिया और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की सौराष्‍ट्र के विभिन्‍न जिलों में हुईं सभाएं भी प्रभावी रहीं। इसी के कारण भाजपा को सौराष्‍ट्र में कुछ सीटें गंवानी पड़ सकती हैं। अगर दूसरे चरण में भी कुछ ऐसा ही चला तो कहा जा सकता है जनता को मोदी नहीं परिवर्तन चाहिए।

मोदी का चुनावी जुआं

मोदी ने लिए इस बार एक चुनावी जुआं भी खेला है। पार्टी, संघ,विहिप कोई भी उनके साथ नहीं हैं सिर्फ और सिर्फ मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। शहरी इलाकों में मोदी के पक्ष में माहौल दिखता है। अगर यही स्थिति गावों खासकर मध्‍य गुजरात के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में रही तो मोदी ही चाहिए का मुद़दा काफी प्रभावी हो जाएगा। और भाजपा को पूरे बहुमत के सा‍थ सत्‍ता मिलेगी। आंखों में सत्‍ता सुंदरी का सपना संजोए मोदी विरोधी नेता शंकरसिंह वाघेला, भरतसिंह सोलंकी,गोवर्धन झड़पिया मानते हैं कि मोदी के विकास के मुद़दे का हश्र चंद्राबाबू नायडू और शाइनिंग इं‍डिया के नारे की तरह ही होगा।

मोदी का मै‍जिक चलेगा क्‍या

अब तो 23 दिसंबर को ही पता चलेगा कि गुजरात को मोदी चाहिए या नही। मोदी का मैजिक अथवा मास हिस्‍टेरिया चलेगा या नहीं। इल सभी के बीच एक बात तय है कि गुजरात के इतिहास में पहली बार हो रहे मुद़दा या लहर विहीन चुनाव में एक व्‍यक्ति ने अपने मैजिक से सरगरर्मी ला दी। अब नतीजा चाहे जो भी हो। जीते तो गुजरात का ताज, बाद में भाजपा का भी। साथ में इं‍दिरा गांधी जैसे एक और करिश्‍माई नेता का तमगा वो भी बिल्‍कुल मुफ़त। इस सारे सवालों के बीच दांव पर लगा है भाजपा का भविष्‍य। अगर ये चुनाव जीते तो अगले साल होने वाले लोकसभा ओर दस राज्‍यों के विधानसभा चुनाव का रास्‍ता काफी आसान हो जाएगा अन्‍यथा मोदी और भाजपा दोनों का पतन तय है ।
खबरी ने बात इंदिरा गांधी ने शुरु की थी तो समाप्‍त भी इंदिरा गांधी से।

इं‍दिरा और मोदी में अंतिम समानता

इंदिरा गांधी ने सेवादल सहित कांग्रेस के सभी संगठनों को खत्‍म कर दिया । इसके बाद अपने नाम से ही नई कांग्रेस खड़ी कर ली । मोदी भी इसी रास्‍ते पर चल चुके हैं वे संघ और विहिप को खत्‍म करने की ओर अग्रसर हैं । इसी वजह से भी संघ और विहिप इस चुनाव में उनके साथ नहीं दिख रहे हैं ।
सवाल -इं‍दिरा गांधी रूल बुक के हिसाब से मोदी का अगला कदम क्‍या होगा
जवाब- भाजपा मोदी का गठन------
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मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

वाजपेयी युग के ऐसे अंत की तो नहीं ही थी उम्‍मीद



बिन मौसम बरसात की तरह सोमवार शाम एक खबर आई कि जिन्‍हावादी नेता लालकष्‍ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्‍मीदवार होंगे। इसके कई निहितार्थ और संदेश हैं।
* पहला यह कि लोकसभा के मध्‍यावधि चुनाव कभी भी हो सकते हैं।
* दूसरा.भाजपा और एनडीए की कमान लालजी के हाल होगी।
* तीसरा गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान की पूर्व संध्‍या पर ऐसी घोषणा कर यह संदेश देने की कोशिश करना कि अगला प्रधानमंत्री गुजरात से होगा। लालजी गांधीनगर से सांसद भी हैं।
* चौथी और सबसे महत्‍वपूर्ण यह कि भारत की राजनीति से वाजपेयी युग का औपचापिरक अंत हो गया है ।
* पांचवी यह कि भाजपा की कमान अब नरमपंथी हाथों से चरमपंथी हाथों में आ गई है। यह बाद दीगर है प्रधानमंत्री पद के सपने ने इन हाथों को अपने चेहरे पर जिन्‍हावाद का मुखौटा लगाने पर मजबूर कर दिया।

भरी दुपहरी में अंधियारा, सूरज अपनों से ही हारा
वाजपेयी जैसे महामना का भारतीय राजनीति के शिखर ऐसी गुमनामी से ओझिल होने की खबर की किसी को उम्‍मीद नहीं थी, खुद वाजपेयी को भी नहीं। ये वे ही वाजपेयी हैं जिन्‍होंने गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के बाद नरेन्‍द्र मोदी को सीख दी थी कि मोदीजी आपने राजधर्म का पालन नहीं किया। वे भारतीय राजनीति में नेहरू युग के अंतिम राजनेता हैं। उन्‍होंने संघ के प्रचारक, पत्रकार और राजनेता के रूप में सफलताओं और अदाओं के नए मुहावरे गढे। शब्‍दों के बाणों से सारे काम्‍पीटिटर्स को ससम्‍मान धराशायी किया। हटाने के पीछे वाजपेयीजी की ढलती उम्र, खराब सेहत और खुद उनकी रजामंदी की दुहाई दी गई। भाजपा में इतना बडा फैसला हो गया तो बडे घर यानी नागपुर की भी रजामंदी रही ही होगी। यह फैसला काफी पहले ले लिया गया था। भाजपा के संसदीय बोर्ड ने संघ के इशारे पर गुजरात चुनाव से ठीक पहले इसका ऐलान कर दिया। बेहतर होगा कि इस बात का आफिशियल ऐलान करने का मौका वाजपेयी को ही दिया जाता। आरएसएस की परंपरा तो कमसे कम ऐसा ही कहती है। आरएसएस को माई बाप मानने वालों से कम से कम इस भाईचारे की तो उम्‍मीद थी ही।
भाजपा फिर लौट रही है हिन्‍दुत्‍व की ओर
इसका मतलब यह है भी है कि भाजपा हिन्‍दुत्‍व की ओर लौट रही है। भाजपा की कमान अब नरमपंथी हाथों से चरमपंथी हाथों में आ गई है। यह बाद दीगर है प्रधानमंत्री पद के सपने ने इन हाथों को अपने चेहरे पर जिन्‍हावाद का मुखौटा लगाने पर मजबूर कर दिया था। यह तो एनडीए में स्‍वीकार्यता के लिए खेले गए प्रहसन का एक अध्‍याय भी था। पिछले लोकसभा चुनाव में शायनिंग इंडिया का नारा देने के बाद पराजय की धूल चाट चुकी भाजपा को अब फिर हिन्‍दुत्‍व और विकास के घालमेल से ही उम्‍मीदें हैं। भाजपा को लगने लगा है कि न खाली हिन्‍दुत्‍व से चुनाव जीता जा सकता हैं और न हीं सिर्फ विकास से। उन्‍हें लगा क्‍यों न दोनों का घालमेल कर दिया जाए। फिलहाल इसका लिटमस टेस्‍ट गुजरात विधानसभा चुनाव में जारी है। यही कारण है कि चरमवादी लालजी, नरमपंथी अटलबिहारी वाजपेयी के उत्‍तराधिकारी होंगे। आरएसएस को भी वाजपेयी कभी भी सूट नहीं करते थे, लेकिन सर्वस्‍वीकार्यता और गठबंधने के दौर में उसे अपने इस नरमपंथी स्‍वयंसेवक को मजबूरी में देश का सीईओ बनाना पड़ा था। भाजपा विकास के नारे के साथ हिन्‍दुत्‍व की ओर लौट रही है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है नरेन्‍द्र मोदी। गुजरात में विकास ने नाम पर प्रचार अभियान चला रहे मोदी ने बीच प्रचार के दौरान पूर्व नियोजित तरीके से यू-टर्न लिया और सोहराबुद़दीन के बहाने भाजपा को वापस हिन्‍दुत्‍व की पटरी पर ला खडा किया। बिना संघ की हरी झंडी के मोदी इतना बड़ा कदम उठा ही नहीं सकते थे।
एक तीर से साधे कई निशाने
आडवाणी तो एक बहाना हैं। इसके बहाने कई तीर चले हैं। संघ कई दिनों से भाजपा को हिन्‍दुत्‍व की पटरी पर लाना चाह रहा था पर वाजपेयी के रहते भाजपा में यह सब संभव नहीं हो पा रहा था। अब तय है कि भाजपा का रिमोट कंन्‍टोल नागपुर केसरिया झंडे तले पहुंच गया है।
गुजरात में भाजपा में चल रही असंतुष्‍ट गतिविधियों के पीछे आडवाणी विरोधियों की शह को माना जा रहा है। भाजपा पर अपना बर्चस्‍व कामम करने के लिए मौजूदा हाईकमान राजनाथसिंह आडवाणी को कमजोर करने पर लगे हुए हैं। पिछले दिनों वे यह भी कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवारों की दौड़ मे वे भी शामिल हैं।
गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेन्‍द्र मोदी आडवाणी की परछाई की तरह हैं। अगर मोदी कमजोर होते हैं या गुजरात में मोदी हारते हैं तो इससे आडवाणी कमजोर होंगे और यही पार्टी आलाकमान चाहते हैं। इसी चाल को भांपते हुए आडवाणी और मोदी पिछले कई दिनों से संघ पर दबाव बनाए हुए थे कि आडवाणीजी को प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार घोषित किया जाए। पहले दौर में तो आडवाणी और मोदी ने बाजी मार ली है। अब सारा गणित गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों पर निर्भर है। अगर मोदी जीतते है तो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव और दस राज्‍यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा का तुरुफ का इक्‍का हिन्‍दुत्‍व और विकास का घालमेल ही होगा।
तब तक लालजी इसी बात से संतोष कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री न सही प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवार ही सही।

रविवार, 9 दिसंबर 2007

प्रवीण तोगडिया फ्राम पाटीदार परिषद


नाम-प्रवीण तोगिडया
पद- अध्‍यक्ष गुजरात पाटीदार परिषद
जी हां वे तोगडियाजी तो वही हैं विहिप वाले पर उनके पाटीदार समाज के प्रेम ने उन्‍हें आज इस मुकाम पर ला खडा किया है ।
हिन्‍दुत्‍व के हीरो और विश्‍व हिन्‍दू परिषद के तेजाबी जुबान वाले नेता बोले तो अपने प्रवीणभाई तोगडिया इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव के कैनवास से गायब हैं। गोधरा कांड और दगों के बाद हुए पिछले चुनाव में प्रवीण भाई तोगडिया ने मोदी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनके समर्थन में सौ से अधिक सभाएं की थीं। प्रस्‍तुत है प्रवीणभाई के गावब होने की कथा
ये कैसा‍ हिन्‍दुत्‍व
प्रवीणभाई तोगडिया मोदी विरोधी गतिविधियों से लगातार जुडे रहे। कारण कि मोदी के खिलाफ चल रहे असंतुष्‍टों के आंदोलन को प्रवीणभाई को खुले दिल से खुले तौर पर आशीर्वाद रहा है। इसका एक बडा कारण उनका पाटीटार होना भी रहा है बुजुर्गवार भाजपी नेता केशुभाई भी इसी पाटीदार समाज को बिलांग करते हैं। सरदार पटेल उत्‍क़र्ष समिति के बैनर तले सौराष्‍ट में हुए असंतुष्‍टों के सम्‍मेलनों को भी हमारे इस हिन्‍दूवीर ने संबोधित किया था।
प्रवीणभाई को हिन्‍दुत्‍व का डोज
असंतुष्‍टों के अगुवा प्रवीणभाई की इस हरकत के बारे में जब आरएसएस मुख्‍यालय और भाजपाई कंमाडर को खबर लगी तो उन्‍हें मुम्‍बई तलब किया गया। वहां उन्‍हें संघ के नेता मोहन भागवत, जिन्‍हावादी नेता आडवाणी और बीजेपी सुप्रीमो राजनाथसिंह ने हिन्‍दुत्‍व का कोरामिन डोज दिया गया। उन्‍हें याद दिलाया गया कि वे मात्र पाटीदार समाज ही नहीं समग्र हिन्‍दू समाज के नेता हैं लिहाजा पाटीदार समाज विशेष के मच पर जाकर एक प्रो हिन्‍दू सरकार के मुखिया को हटाने की गतिविधियों में शामिल होना उनके कद के नेता को शोभा नहीं देता है।
पाटीदार समाज के नेता हैं या हिन्‍दु परिषद के
अभी तक प्रवीणभाई हिन्‍दुत्‍व का कोरामिन डोज विहिप कार्यकर्ताओं को लगाया करते थे उसी का प्रयोग मुम्‍बई में उन्‍हीं पर हो गया। पेशे से कैंसर के डाक्‍टर प्रवीणभाई के पास हथियार डालने के अलावा और कोई दूसरा चारा नहीं बचा था। उन्‍होंने नेताओं की तिकडी को वचन दिया कि वे चुनाव तक गुजरात का मुंह भी नहीं करेंगे और वे रामसेतु के लिए जागित अभियान में लग जाएंगे।
गुजरात से दूर रहने की सौदेबाजी
खैर इसके बाद प्रवीणभाई सीधे तौर पर मोदी विरोधी अभियान से दूर हो गए पर परदे के पीछे कठपुतलियों का नाच जारी है। प्रवीणभाई को इसका सिला भी तुरंत ही मिल गया। राजस्‍थान की भाजपी सरकार ने उनके खिलाफ अजमेर में दर्ज त्रिशूल दीक्षा का मामला वापस ले लिया। जैसा कि सभी जानते हैं लगभग पांच साल पहले अजमेर में त्रिशूल दीक्षा के कार्यक्रम कांग्रेस की तत्‍कालीन अशोक गहलोत सरकार ने उनके खिलाफ मामला दर्ज कर लिया था। उसके बाद से समुद्र का काफी पानी बह गया। इस दौरान वहां भाजपा की सरकार भी बन गई पर मामला था कि वापस लेने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब बोलियो यह कैसी सौदेबाजी रही।
महत्‍वाकांक्षा के बीज
संघ परिवार और भाजपा के शीर्ष नेताओं में एक बार इस बात पर विचार किया था कि क्या गुजरात का नेतृत्व प्रवीण तोगड़िया को सौंप देना चाहिए ? यह प्रस्ताव तोगड़िया तक भी गया था. लेकिन उनका कहना था कि वे तो विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव हैं और एक छोटे से राज्य का नेतृत्व उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं है बाद में उन्‍हें अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्‍हें लगा कि ये तो उन्‍होंने हाथ में आई थाली छोड दी है।
राजनीति का विहिप
गुजरात चुनाव में मोदी और हिन्‍दुत्‍ववादी ताकतों को मजबूत करने के प्रस्‍ताव के तोगिडया की विहिप दूर क्‍यों हैं? लाख टके का सवाल सारे हिन्‍दुओं के मन में घूम रहा है। पाटीदार समाज की खातिर प्रवीणभाई ने क्‍यों विश्‍व हिन्‍दू परिषद की विचारधारा को भी ताक पर रख दिया है? विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्‍यक्ष अशोक सिंहल ने मोदी को समर्थन क्‍या दिया प्रवीण भाई समर्थक संत नाराज हो गए। सवाल यह है कि हिन्‍दूओं के हित ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हैं या प्रवीणभाई या नरेन्‍द्रभाई या केशुभाई का ईगो? क्‍या हिन्‍दूओं के व्‍यापक हितों के लिए इस यादवी घमासान को कुछ देर के लिए रोका नहीं जा सकता? यह बात मैं सिर्फ और सिर्फ इसलिए कर रहा हूं इन सारे महानुभावों की दुकानदारी हिन्‍दुत्‍व के नाम पर चलती है। दरअसल प्रवीणभाई की नजर बडे ही दिनों से सिंधल साहब की कुरसी पर है इस बहाने प्रवीणभाई को मौका मिल गया । पर अशोक सिंघल ने गुजरात में विहिप मार्गदर्शक मंडल के सदस्‍य और पंचखंडपीठाधीश्‍वर आचार्य धर्मेन्‍द्र को मैदान में उतरकर उनकी कुरसी के पीछे एक दावेदार लगा दिया है। आचार्य धर्मेन्‍द्र प्रवीणभाई से भी तेजाबी जुबान रखते हैं।
गौर करे
माना कि इन चुनावों मोदी हार गए और फिर दंगा हो गया------
सवाल- इसका जिम्‍मेदार कौन
जवाब- प्रवीण तोगडिया
बहुत कर ली सियासल अपनी-अपनी
अब जरा सुध ले लो हिन्‍दुओं की

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

मोदी एक्सप्रेस विकास के ट्रैक से हिंदुत्व के ट्रैक पर


मोदी चुनावी रैलियों में कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैंगुजरात में विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मसले पर एक टिप्पणी ने नया विवाद खड़ा कर दिया है। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि मोदी एक्सप्रेस विकास के ट्रैक से हिंदुत्व के ट्रैक पर aरही है.मंगलवार को एक चुनाव सभा में नरेंद्र मोदी ने सोहराबुद्दीन के गुजरात पुलिस के हाथों मारे जाने को सही ठहराया है.रिपोर्टों के अनुसार 26 नवंबर 2005 को गुजरात पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) और राजस्थान पुलिस की एक मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन शेख़ मारे गए थे.इस मामले में तीन आईपीएस अधिकारियों - डीजी वंज़ारा, राजकुमार पांडियन और दिनेश कुमार एमएन को गिरफ़्तार किया गया था जो अभी न्यायिक हिरासत में हैं.बाद में गुजरात पुलिस ने अदालत में स्वीकार किया कि कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारे गए सोहराबुद्दीन शेख़ की पत्नी क़ौसर बी की हत्या हो चुकी है और उसके शव को जला दिया गया था.मामले की जाँच फिलहाल गुजरात की अपराध जाँच शाखा यानी सीआईडी कर रही है.कांग्रेस ने सोहराबुद्दीन शेख़ मामले पर नरेंद्र मोदी की टिप्पणी को 'तानाशाह रवैया' क़रार दिया है और समाजवादी पार्टी ने कहा है कि ऐसे व्यक्ति को क़ानून और संविधान में कोई विश्वास नहीं है और उसे किसी ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं होना चाहिए.पर्यवेक्षकों के अनुसार भाजपा ने जब चुनाव अभियान शुरू किया था तब वो विकास की बात कर रही थी लेकिन पार्टी असंतुष्टों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की रैलियों के बाद भाजपा ने आतंकवाद और हिंदुत्व का राग अलापना शुरू कर दिया है.'आतंकवाद' का रागटीवी चैनलों ने एक रैली के दौरान मोदी को सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मसले पर यह कहते हुए दिखाया, "जिस सोहराबुद्दीन पर आतंकवादी वारदातों में शामिल होने का आरोप हो, जिस सोहराबुद्दीन को चार-चार राज्यों की पुलिस खोज रही हो, उसके साथ कैसा सलूक होना चाहिए?"लोगों को तय करना है कि ऐसे मुख्यमंत्री का क्या करना है जो तानाशाह है और जिसे मानवाधिकारों के हनन पर किसी तरह का अफ़सोस नहीं हैअभिषेक सिंघवी, प्रवक्ता, कांग्रेसमोदी ने सोहराबुद्दीन की पत्नी की पुलिसवालों के हाथों कथित हत्या के बारे में कुछ नहीं कहा.मोदी ने चुनावी सभा में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार को चुनौती दी कि 'अगर वह उन्हें दोषी मानती है और अगर उसमें दम है तो वह उन्हें फाँसी दे दे.'आरोप-प्रत्यारोपइस बीच, कांग्रेस ने मोदी की सोहराबुद्दीन मुठभेड़ पर की गई टिप्पणी पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.भाजपा गुजरात में विचारधारा, नेतृत्व और विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है. लेकिन आतंकवाद भी देश के सामने बड़ा मुद्दा है और अगर मोदी इसे उठा रहे हैं तो इसमें गलत क्या हैजावडेकर, प्रवक्ता, भाजपाकांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि भाजपा को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए कि क्या वह मोदी की टिप्पणी से सहमत है.उन्होंने कहा, "जो मुख्यमंत्री लोगों से सवाल पूछते हैं कि क्या पुलिस को सोहराबुद्दीन को नहीं मारना चाहिए था... लोगों को ही तय करना है कि ऐसे मुख्यमंत्री का क्या करना है जो तानाशाह है और जिसे मानवाधिकारों के हनन पर किसी तरह का अफ़सोस नहीं है."दूसरी ओर, भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने कहा कि कांग्रेस का हाल अजीब है - 'जब मोदी आतंकवाद की बात करते हैं तो वे कहने लगते हैं कि मोदी विकास की बात नहीं कर रहे और विकास की बात करने पर कहते हैं कि वे अन्य मुद्दों से बच रहे हैं.'उन्होंने कहा, "भाजपा गुजरात में विचारधारा, नेतृत्व और विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है लेकिन आतंकवाद भी देश के सामने बड़ा मुद्दा है और अगर मोदी इसे उठा रहे हैं तो इसमें ग़लत क्या है."

मोदी एक्सप्रेस विकास के ट्रैक से हिंदुत्व के ट्रैक पर

मोदी चुनावी रैलियों में कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं
गुजरात में विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मसले पर एक टिप्पणी ने नया विवाद खड़ा कर दिया है। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि मोदी एक्सप्रेस विकास के ट्रैक से हिंदुत्व के ट्रैक पर aरही है.
मंगलवार को एक चुनाव सभा में नरेंद्र मोदी ने सोहराबुद्दीन के गुजरात पुलिस के हाथों मारे जाने को सही ठहराया है.
रिपोर्टों के अनुसार 26 नवंबर 2005 को गुजरात पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) और राजस्थान पुलिस की एक मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन शेख़ मारे गए थे.
इस मामले में तीन आईपीएस अधिकारियों - डीजी वंज़ारा, राजकुमार पांडियन और दिनेश कुमार एमएन को गिरफ़्तार किया गया था जो अभी न्यायिक हिरासत में हैं.
बाद में गुजरात पुलिस ने अदालत में स्वीकार किया कि कथित फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारे गए सोहराबुद्दीन शेख़ की पत्नी क़ौसर बी की हत्या हो चुकी है और उसके शव को जला दिया गया था.
मामले की जाँच फिलहाल गुजरात की अपराध जाँच शाखा यानी सीआईडी कर रही है.
कांग्रेस ने सोहराबुद्दीन शेख़ मामले पर नरेंद्र मोदी की टिप्पणी को 'तानाशाह रवैया' क़रार दिया है और समाजवादी पार्टी ने कहा है कि ऐसे व्यक्ति को क़ानून और संविधान में कोई विश्वास नहीं है और उसे किसी ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं होना चाहिए.
पर्यवेक्षकों के अनुसार भाजपा ने जब चुनाव अभियान शुरू किया था तब वो विकास की बात कर रही थी लेकिन पार्टी असंतुष्टों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की रैलियों के बाद भाजपा ने आतंकवाद और हिंदुत्व का राग अलापना शुरू कर दिया है.
'आतंकवाद' का राग
टीवी चैनलों ने एक रैली के दौरान मोदी को सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मसले पर यह कहते हुए दिखाया, "जिस सोहराबुद्दीन पर आतंकवादी वारदातों में शामिल होने का आरोप हो, जिस सोहराबुद्दीन को चार-चार राज्यों की पुलिस खोज रही हो, उसके साथ कैसा सलूक होना चाहिए?"
लोगों को तय करना है कि ऐसे मुख्यमंत्री का क्या करना है जो तानाशाह है और जिसे मानवाधिकारों के हनन पर किसी तरह का अफ़सोस नहीं है

अभिषेक सिंघवी, प्रवक्ता, कांग्रेस
मोदी ने सोहराबुद्दीन की पत्नी की पुलिसवालों के हाथों कथित हत्या के बारे में कुछ नहीं कहा.
मोदी ने चुनावी सभा में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार को चुनौती दी कि 'अगर वह उन्हें दोषी मानती है और अगर उसमें दम है तो वह उन्हें फाँसी दे दे.'
आरोप-प्रत्यारोप
इस बीच, कांग्रेस ने मोदी की सोहराबुद्दीन मुठभेड़ पर की गई टिप्पणी पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है.
भाजपा गुजरात में विचारधारा, नेतृत्व और विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है. लेकिन आतंकवाद भी देश के सामने बड़ा मुद्दा है और अगर मोदी इसे उठा रहे हैं तो इसमें गलत क्या है

जावडेकर, प्रवक्ता, भाजपा
कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि भाजपा को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए कि क्या वह मोदी की टिप्पणी से सहमत है.
उन्होंने कहा, "जो मुख्यमंत्री लोगों से सवाल पूछते हैं कि क्या पुलिस को सोहराबुद्दीन को नहीं मारना चाहिए था... लोगों को ही तय करना है कि ऐसे मुख्यमंत्री का क्या करना है जो तानाशाह है और जिसे मानवाधिकारों के हनन पर किसी तरह का अफ़सोस नहीं है."
दूसरी ओर, भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने कहा कि कांग्रेस का हाल अजीब है - 'जब मोदी आतंकवाद की बात करते हैं तो वे कहने लगते हैं कि मोदी विकास की बात नहीं कर रहे और विकास की बात करने पर कहते हैं कि वे अन्य मुद्दों से बच रहे हैं.'
उन्होंने कहा, "भाजपा गुजरात में विचारधारा, नेतृत्व और विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है लेकिन आतंकवाद भी देश के सामने बड़ा मुद्दा है और अगर मोदी इसे उठा रहे हैं तो इसमें ग़लत क्या है."

बुधवार, 5 दिसंबर 2007

किस को मालूम कहाँ के हैं, किधर के हम हैं


ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान के एक इलाक़े का नाम है. फिराक़ के गोरखपुर, जिगर के मुरादाबाद की तरह महमूद ग़ज़नवी भी अपने नाम के साथ ग़ज़नी जोड़ता था.
वह नस्ल से तुर्क था, जिसने जीसस के हज़ार साल बाद ग़जनी में अपनी हुकूमत स्थापित की थी. महमूद ने भारत पर कई बार हमले किए, लेकिन इन हमलों का संबंध धर्म से कम और लूटमार के अधर्म से ज़्यादा था.
वह नाम से मुसलमान ज़रूर था, लेकिन हक़ीक़त में पेशेवर लुटेरा था, जो बार-बार अपने सिपाहियों के साथ आता था और जो इस लूट में मिलता था उसे लेकर चला जाता था.
पंडित नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में लिखा है, "महमूद एक लुटेरा था. धर्म को उसने लूटमार में एक शस्त्र की तरह इस्तेमाल किया था. आख़िरी बार वह हिंदुस्तानियों के हाथों ऐसा हारा कि उसे अपनी जान बचाकर भागने पर मजबूर होना पड़ा. उसके काफ़िले में जितनी औरते थीं वे यहीं के सिपाहियों के घरों में बस गईं."
महमूद के साथ गुजरात के सोमनाथ मंदिर का जिक्र भी इतिहास में मिलता है.
इस आक्रमण को इतिहास में धार्मिक विवाद का रूप भले ही दे दिया जाए, लेकिन पर्दे के पीछे की हक़ीक़त दूसरी है. लुटेरों के लालच या लोभ को मूरत या क़ुदरत से ज़्यादा धन-दौलत से मुहब्बत होती है और इस मुहब्बत में धर्म को बदनाम किया जाता है.
नरेश सक्सेना ने फ़ैज़ाबाद में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने पर एक कविता लिखी थी, कविता में वर्तमान के धर्मांतरण की तुलना अतीत के जुनून से की गई है, कविता की पंक्तियां हैं
इतिहास के बहुत से भ्रमों में सेएक यह भी हैकि महमूद ग़ज़नवी लौट गया थालौटा नहीं था वह-यहीं थासैंकड़ों बरस बाद अचानकवह प्रकट हुआ अयोध्या मेंसोमनाथ में किया था उसनेअल्लाह का काम तमामइस बार उसका नारा था-जयश्रीराम
महमूद ग़ज़नवी जिन औरतों और मर्दों को छोड़कर अपनी जान बचाकर भागा, उनकी औलादें कई-कई नस्लों के बाद कहाँ-कहाँ है, ईश्वर के किस रूप की पुजारी है, चर्च में उसकी स्तुति गाती है, मस्जिद में सर झुकाती हैं या मूरत के आगे दीप जलाती हैं. मैंने सैलाब नामक एक सीरियल के टाइटिल गीत में लिखा है.
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों सेकिस को मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं.
ख़ुदा की ज़मीन
कोई नगर हो या देश हो, उसमें बसने वाले या वहाँ से बाहर जाने वाले सब एक जैसे नहीं होते. गज़नी से महमूद भी भारत आया था और वे बुज़ुर्ग भी आए थे जो सारी दुनिया को एक ही ख़ुदा की ज़मीन मानते थे.
इन्हीं बुजुर्गों की नस्ल के एक मुहम्मद फ़तह खाँ के परिवार में, पंजाब के ज़िला होशियारपुर में 1928 में एक बेटे का जन्म हुआ. बाप ने उसका नाम मुहम्मद मुनीर ख़ान नियाज़ी रखा. अभी यह बच्चा मुश्किल से एक साल का ही था कि बाप अल्लाह को प्यारे हो गए.
बाप की मौत ने घर ख़ानदान के हालात ही नहीं बदले, बल्कि मुहम्मद मुनीर ख़ान नियाज़ी ने अपने चार लफ़्जों के नाम को दो लफ़्जी नाम में बदल दिया. अब इसमें न मुहम्मद था न ख़ान. सिर्फ़ दो लफ़्ज थे मुनीर नियाज़ी.
मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ और नूनकीम राशिद के बाद पाकिस्तान की आधुनिक उर्दू शायरी का सबसे बड़ा नाम है.
मुनीर अपने मिज़ाज, अंदाज़ और आवाज़ के लिहाज़ से अनोखे शायर थे. यह अनोखापन उनके शब्दों में भी नज़र आता है. शब्दों में पिरोए हुए विषयों में भी जगमगाता है और उस इमेजरी से भी नकाब उठाता है जो उनकी शायरी में एक भाषा की रिवायत में कई मुल्की और ग़ैरमुल्की भाषाओं की विरासत को दर्शाती है.
वह पैदायशी पंजाबी थे. पंजाब की अज़ीम लोक विरासत में शामिल सूफियाना इंसानियत, जिनका शुरूआती रूप बाबा फ़रीद के दोहो में बिखरा हुआ है, मुनीर नियाज़ी की नज्मों और ग़ज़लों की ज़ीनत है.
उनकी शायरी का केंद्रीय किरदार, समय-समय पर बदलती रियासत से दूर होकर उन राहों में चलता फिरता नज़र आता है जहाँ दरख़्त, इंसान, पहाड़, आसमान परिंदे, दरिंदे और नदियाँ एक ही ख़ानदान से सदस्य है और जो एक दूसरे के दुख-सुख में बराबर शरीक रहते हैं.
इस शायरी में ज़मीन और आसमान के बीच ज़िंदगी उन हैरतों में घिरी दिखाई देती है जो सदियों से सूफी संतो की इबादतों का दायरा रही हैं.
इन हैरतों की झिलमिलाहटों में न ज़मीन की सीमाएँ हैं, न विज्ञान की लानतों से गंदी होती फज़ाएँ हैं. इनमें मानव जीवन प्रकृति का चमत्कार है, जो सीधा और आसान नहीं है. गहरा और पुरइसरार है.
महमूद ग़ज़नवी तलवार के सिपाही थे और मुनीर नियाज़ी कायनात में कुदरत की रहमत की गवाही थे. उनकी रचनाओं की कुछ मिसालें देखिए.
अभी चाँद निकला नहींवह ज़रा देर में उन दरख्तों के पीछे से उभरेगा.और आसमाँ के बड़े चश्त को पार करने की एक और कोशिश करेगा (कोशिशे राख्गाँ)
गुम हो चले हो तुम तो बहुत ख़ुद में ए मुनीरदुनिया को कुछ तो अपना पता देना चाहिए
आदत सी बना ली है तुमने तो मुनीर अपनीजिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
मुनीर नियाज़ी ने सोमनाथ मंदिर की दौलत की लालच में न अल्लाह का काम तमाम किया और न बाबरी मस्जिद को तोड़कर जय श्रीराम कहा.
उसने सिर्फ़ अपने लफ़्जों में प्रेम और अहिंसा के पैगंबरो-बाबा फ़रीद, वारिस शाह आदि का पैग़ाम आम किया.
मुनीर नियाज़ी (1828-1906) अपनी तबीयत की वजह से आबादी में तन्हाई का मार्सिया था. इस तन्हाई को बहलाने के लिए उन्हीं के एक इंटरव्यू के मुताबिक उन्होंने 40 बार इश्क किया था, लेकिन यह गिनती भी उनकी बेक़रारी को सुकून नहीं दे पाई. इस मुसलसल बेक़रारी के बारे में उन्होंने लिखा है:
इतनी आसाँ ज़िंदगी को इतना मुश्किल कर लियाजो उठा सकते न थे वह ग़म भी शामिल कर लिया
मुनीर नियाज़ी ने कई पाकिस्तानी फ़िल्मों में गीत भी लिखे थे, इनमें कुछ गीत अच्छे और नर्म लफ़्जों के कारण काफ़ी पसंद भी किए गए. कुछ गीतों के मुखड़े यूँ हैं:
उस बेवफ़ा का शहर है और हम हैं दोस्तो...
या फिर
कैसे-कैसे लोग हमारे दिल को जलाने आ जाते है
और एक यह भी,
जिसने मेरे दिल को दर्द दिया, उस शख़्स को मैंने भुला दिया
मुनीर नियाज़ी वक़्त और उसके ग़ैर-इंसानी बर्ताव से इतने उदास थे कि चालीस बार इश्क़ करने के बावजूद अपने माँ-बाप की इकलौती औलाद की तरह वह तमाम उम्र इकलौते ही रहे. उन्हें अपना नाम अजीज़ था कि इसमें किसी और की शिरकत उन्हें गवारा नहीं हुई. उनके वारिसों में उनकी बेवा के अलावा कोई और नहीं.
शाम आई है शराबे तेज़ पीना चाहिएहो चुकी है देर अब ज़ख्मों को सीना चाहिए. निदा फाज़ली


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

रविवार, 2 दिसंबर 2007

किसने घंटी बजा दी नरेंद्र मोदी की

अहमदाबाद के एक अखबार में एक फोटो छपी थी , जिसमें एक रिटायर्ड पुलिस अफसर घंटी बजा रहा है। फोटो कैप्शन में इशारा ये है कि जो घंटी बज रही है, मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की है. इस रिटायर्ड पुलिस अफसर का नाम रमण पिल्लइ भास्करन नायर श्रीकुमार है. आरबी श्रीकुमार गुजरात में एडीशनल डीजीपी पद से रिटायर हुए और उन्हें बृहस्पतिवार को मोदी सरकार के खिलाफ एक कोर्टकेस में जीत हासिल हुई जिसमें उनके प्रमोशन के मामले वाली फाइल को सरकार ने सीलबंद कर दिया था. किसी भी आईपीएस के मन में एक स्वाभाविक महत्वाकांक्षा होती होगी कि वह तरक्की के शीर्ष तक पंहुचकर रिटायर हो अगर वह कर्तव्यपरायण और ईमानदार हो तो.श्रीकुमार के साथ ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से कह दिया था कि तुम्हारे हाथ बेगुनाहों के खून से रंगे हैं. श्रीकुमार गुजरात कैडर के १५० आईपीएस अफसरों में से अकेले थे जिन्होंने सच कहने का साहस किया और कहा कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लोग दंगों के दौरान हालात को काबू करने से अफसरों को रोक रहे थे. श्रीकुमार उस वक्त़ इंटेलिजेंस के प्रमुख थे और उनका तबादला वहां से कर दिया गया. श्रीकुमार ने दंगों की जांच करने वाले नानावटी कमीशन के सामने पेश अपनी डायरी में से ये कहा कि मोदी सरकार के मुख्य सचिव ने उनसे अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की हिदायत दी थी. श्रीकुमार ने नानावटी कमीशन के सामने चार हलफनामे दायर किये और चारों को पढ़ने के बाद ये साफ हो जाता है कि गोधरा कांड के बाद किस तरह नरेंद्र मोदी, उनके चाटूकार नेता, चिलमची नौकरशाह और चम्मच लोग दंगों के नाम पर सुनियोजित नरसंहार की साजिश को वहशियाना अंजाम दे रहे थे. श्रीकुमार इन सारे लोगों में अकेला खुद्दार आदमी है. उनके मुताबिक राज्य सरकारअसंवैधानिक निर्देश जारी कर रही थी. श्रीकुमार ने कहा उन्हें जो निर्देश दिये गये उनमें पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला का फोन टेप करना, संघ परिवार के लोगों पर निगाह रखने से मना किया जाना, मोदी सरकार के ही मंत्री हरेन पंड्या (सुनीता विलियम्स के चचेरे भाई, जिसकी बाद में हत्या हो गई) के मोबाइल फोन को ट्रैक करना और उस नंबर से हुई बातचीत के नंबरों की हिस्ट्री निकलवाना, और केद्रीय चुनाव आयोग के सामने गुजरात की सांप्रदायिक स्थिति के बारे में सही आकलन न पेश करना जैसी बातें शामिल थीं. श्रीकुमार के मुताबिक उनसे गुजरात सरकार के अफसरों ने कहा था कि वे नानावटी कमीशन के सामने तथ्यों को छिपाएं और गोधरा कांड की कॉंसपिरेसी थ्योरी को मान लें और साथ ही ऐसी कोई बात न कहें जिससे ये पता चल जाए कि सरकारी एजेंसियों ने अपना काम ठीक से नहीं किया.श्रीकुमार ने अपने चौथे हलफनामे में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी का वक्तव्य उद्धृत करते हैं - मैं (मोदी) चाहता हूं कि गोधरा कांड के बाद हिंदू अपने गुस्से का इजहार करें.सच कहने का साहस करने के एवज में मोदी सरकार ने वही किया जो एक डरे हुए नौकरशाह की क्लासिक प्रतिक्रया होती है. चुप कराने की कोशिश. पहले तबादला किया और फिर 1987 के किसी निचले कोर्ट में दायर क्रिमिनल केस का हवाला देते हुए श्रीकुमार को सुपरसीड कर दिया गया और उन्हें डीजीपी नहीं बनने दिया गया. अदालती मामले में श्रीकुमार को तब तक उलझा कर रखा गया जब तक उनका रिटायरमेंट नहीं हो गया. अब जब कोर्ट का सरकार के खिलाफ और श्रीकुमार के पक्ष में फैसला आया है श्रीकुमार को रिटायर हुए आठ महीने हो गये हैं. उन्होंने इस लड़ाई के लिए कानून की डिग्री ली, अपनी कार बेच दी और एक एक करके अपनी ही प्रजा का शिकार करने वाले तंत्र के खिलाफ हलफिया सुबूत दिये.गांधीनगर में अपने मकान शुक्रवार को अकेले बैठे श्रीकुमार से एक गुजराती अखबार ने बात की तो पता चला कि उन्हें एक को छोड़कर किसी भी पुलिस अफसर का फोन नहीं आया. वे डरे हुए हैं कि कहीं सरकार को पता न चल जाए. उन्हें अपने फोन टेप होने का डर है. जिस अफसर का फोन आया है वह भी शायद इसलिए कि वह खुद मेरी ही तरह एक मामले में फंसाया गया है.श्रीकुमार एक आस्तिक हिंदू हैं. नरेंद्र मोदी और उनकी तरह के नेताओं से ज्यादा और निष्ठावान हिंदू. फर्क सिर्फ ये है कि श्रीकुमार का मानना है कि धर्म के केंद्र में मानवता है. हिंसा और नफरत नहीं.

नरेंद्र मोदी हारेंगे या उनके विचार



जब सुनीता विलियम्स अहमदाबाद में थी, तब मैं भी अपने काम से वहां गया हुआ था. कई दिनों से मेरे पास परजानिया फिल्म की वीसीडी पड़ी हुई थी, एक तन्हा रात मैंने वह फिल्म देखी. इसी बीच मैं अपने एक हमपेशा - रॉबिन डेविड की किताब सिटी ऑफ फियर भी पढ़ रहा था, जो उसने यहूदी होकर एक ऐसे मुहल्ले के बारे में लिखी है, जो हिंदू औऱ मुस्लिम आबादियों को काटती एक सड़क पर बना है. परजानिया और ये किताब शायद इसलिए उल्लेखनीय हैं कि ये किसी हिंदू या मुस्लिम के सच न होने के कारण अहमदाबाद के दंगों की शक्ल में हुए नरसंहार का थर्ड पार्टी अकाउंट है. दोनों ही गज़ब के काम हैं. जो बताते हैं कि किस तरह राज्य की सरकार और पुलिस इस नरसंहार में भागीदार थी.राबिन की तरह मेरी भी मां है, और परजानिया के नसीरूद्दीन शाह की तरह मेरा अपना परिवार भी, एक बेटा और एक बेटी भी. मुझे लगता है यहूदी या पारसी होने की बजाय नरसंहार की दरिंदगी को समझने के लिए एक गृहस्थ होना ज्यादा जरूरी है. मनुष्य होने के लिए भी. और जब आपका अपना परिवार होगा, और जिन बच्चों के लिए आप अपनी पृथ्वी, देश, शहर, मुहल्ला छो़ड़कर जाएंगे, तो शायद यही सोचकर वहां वे शांति से रहें, सुखी रहे, आनंद में रहें, समृद्धि में रहें. अगर सभी लोग रॉबिन की तरह हों और परजानिया के हीरो की तरह भी, तो शायद दंगे औऱ नरसंहार हो ही न. कम से कम भूकम्प के दो साल के भीतर तो नहीं ही हों. सिटी ऑफ फियर मैं अभी पूरी नहीं कर पाया हूं. इसी बीच आज एनडीटीवी इंडिया में नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू देखने को मिला. इंटरव्यू में जैसा कि नरेंद्र मोदी की आदत हो चुकी है, और ज्यादातर संघी नेता लोगों के बीच फैशन है, वे जुबान से ज्यादा शब्दों को जबड़ों से चबा कर बोलते हैं. वे चाल, चलन, चोला, चरित्र और च अक्षर के अन्य शब्दों का अनुप्रास प्रयोग देश को ठीक करने और चुनाव जीतने के लिए करते हैं. (पता नहीं किस मीडिया प्लानर की सलाह पर). वह गुजरात के दंगों को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी हमलों से जोड़कर देख रहे थे. वे कह रहे थे कि जैसे देश के दूसरे दंगा पीड़ितों के साथ हुआ है (1984 के दिल्ली दंगों का नाम लिया नमो ने), गुजरात के दंगा पीड़ितो के प्रति सौतेले बरताव का आरोप उन्होंने केंद्र सरकार पर लगाया. उन्होंने कहा मेरी सरकार ने जो भी चुनावी वायदे किये थे, पूरे किये. औऱ गुजराती जनता मुझे दुबारा चुनेगी क्योंकि मैं उनकी कसौटी पर खरा उतरा हूं. अल्पसंख्यक मामलों पर सरकार की भूमिका के बारे में लगभग सिटपिटाते हुए विजय त्रिवेदी ने सवाल पूछा तो कैंमरा उस मौन पर मंडराता रहा, जो नरेंद्र मोदी ने मेकअप की तरह अपनी चेहरे पर पहन रखा था. त्रिवेदी ने अगला सवाल पूछा तो नमो ने कहा कि आपकी जानकारी ग़लत है. और फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बड़ी बातें कहनी शुरू कर दी.क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं क्वैं .....वे ये सब कह सकते हैं. आखिर गुजरात की जनता ने उन्हें चुना है. इसतरह से वे संविधान की आत्मा को प्रतिष्ठित कर पा रहे हों न कर पा रहे हों, पर गुजरात के लोगों ने उन्हें कमाया है. एक ऐसे लोकतंत्र ने जो अपने उस हिस्से को बेदखल करता है, खाने लगता है अपने नाखूनों और रक्तरंजित जबड़ों से, जो हाशिये पर है, जिसे शायद उतनी कुटिल पॉलिटिक्स नहीं आती, जो पढ़े लिखे नहीं हैं और जो बड़े धंधे नहीं करते.नमो इसलिए भी ऐसा कह सकते हैं क्योंकि उनको और उनकी राजनीति को चुनौती देने वाला एक भी शख्स सामने नहीं आया. जो गुजरात में शांति की बात गंभीरता से करता. जो उनकी दलीलों की कलई खोलता. जो उनकी आतंक की स्थापना पर सवाल खड़े करता. जो गुजरात का मांओं-बहनों और परजानिया के गुमे बच्चों को सवाल की तरह सामने ला खड़ा करता. जो पूछता कि नफरत की आग अवाम औऱ जम्हूरियत को कहां लेकर जाएगी. नमो ये सब हंसते हुए इसलिए भी कह सकते हैं, कि कांग्रेस और गांधीवादियों ने उनके खिलाफ ठीक से चूं तक नहीं की. वह उसूलों पर लड़ कर नहीं निहत्थे लोगों को मार कर और मरता देखकर विजेता बना है. गुजरात में चुनाव करीब हैं और नंमो लगभग हर चैनल पर अपनी उपलब्धियों का डंका पीटते दिखलाई देंगे. गुजरात की जनता और भाजपा के पटेल लोग भी ये बता देंगे कि नमो उनकी कसौटी पर कितने खरे या खोटे उतरे हैं.मैं नरेंद्र मोदी व्यक्ति के बारे में सोच रहा था. वह कैसे सोता है. क्या नींद की गोलियां लेनी पड़ती हैं. क्या रामदेव टाइप कोई महाराज की जड़ी बूटी योग प्राणायाम की मदद ली जाती है. जैसे मनोविज्ञानी बोलते हैं कि नींद नहीं आ रही तो सोचो कि बकरियों के बाड़े को एक के बाद बकरी पार कर रही है. उन्हें गिनो. नमो क्या गिनते हैं जब उन्हें नींद नहीं आती. उसके कौन सगे संबंधी हैं. क्या उसके बाल बच्चे होते तो क्या गुजरात में परजानिया जैसे हजारों किस्से होते. क्या नरेंद्र मोदी को अपनी जिंदगी में किसी औरत का प्यार मिल सकता. नमो का बचपन कैसा रहा. उसके साथ क्या कुछ कभी बुरा हुआ जिसके कारण उसके मुख्यमंत्रित्वकाल में वह सब हुआ जिसके बारे में पूर्व गृह मंत्री औऱ जंग खाए लौहपुरुष मुरीद हैं और मेरी 51 कविताएं के लेखक क्षुब्ध. क्या ऐसा संभव है कि गृहस्थ हुए बगैर आप राजधर्म का निर्वहन कर सकते हैं. खास तौर पर अगर आप पुरूष हों. वे कह रहे हैं कि राज्य में आज पूरी तरह से शांति है और विकास का भारी माहौल है. दंगों में उजड़े लोगों ने ऐसा कोई हलफनामा दिया हो तो उसकी कोई खबर नहीं. जिस गोधरा को लेकर नमो की साबरमती एक्सप्रेस गांधीनगर पंहुची थी, वही अभी तक संदिग्ध है कि डिब्बे में आग भीतर से लगी थी या बाहर से. सोहराबुद्दीन मामले में भी साफ हुआ है कि गुजरात में पुलिस, सच, और अच्छे प्रशासन के बीच के संबंध कोई बहुत मधुर नहीं है.नरेंद्र मोदी जिस रामनाम पर गुजरात में वोट मांग रहे हैं इसबार यूपी के चुनाव में अयोध्या की जिला भाजपा ने उनके वहां चुनाव प्रचार करने के लिए पधारने से मना करवा दिया था. नमो तीसरा टर्म भी जीत सकते हैं. लोकतंत्र बहुमत से चलता है. क्योंकि उनका कोई विरोध नहीं है, इसलिए उनकी जीत आसान है. पर अगर वे हार भी जाए, तो गुजरात में कुछ बदलने वाला नहीं. हो सकता है पार्टी के भितरघाती ही मोदी को हरवा दें. हालांकि ये भी आसान नहीं.क्या ये दिलचस्प है कि नफरत के वोटबैंक पर गुजरात के साथ पाकिस्तान और अमेरिका भी जल्द ही चुनाव देखेंगे. जिस मियां मुश को लेकर नमो पिछली बार चुनाव में उतरे थे, इसबार उनकी हालत भी कुछ पतली है. और उधर जॉर्ज डबल्यू बुश की रिपब्लिकन पार्टी भी... जिसने नमो को गुजरात में हुए नरसंहार के कारण वीजा देने से मना कर दिया था. हर जगह मनुष्य होने की, एक ग़लत नेता के लिए शहीद होने की, एक ग़लत नेता के कारण शिकार होने की, एक ग़लत नेता चुनने के खामियाजों की हजारों गाथाएं हैं. वे भी जो परजानिया की तरह पारसी और रॉबिन की तरह यहूदी नहीं है. पर उनके और बाकी हिंदू- मुसलिमों की तरह इंसान हैं.मोदी को हराने का तरीका धोखा नहीं. धोखे से फिर जो सत्ता में आएगा, वैसा ही हो जाएगा. उसका तरीका उन सवालों को ललकार कर, उन बातों को ग़लत साबित कर, उन धारणाओं को चुनौती देना है, ताकि नमो हारे न हारे, वे विचार जरूर बेलगाम न हों, जो लोकतंत्र और सत्ता के बीच अवैध संबंधों के कारण जन्म लेते हैं. वे सवाल अपने लिए ख़ूनी जबड़ों के खिलाफ इंसानी जुबान तलाश कर रहे है.

हिंदी कमेंटरीः एक पोस्ट मार्टम रिपोर्ट


दुनिया कहां से कहां आ गई. पायजामा क्रिकेट अब बरमूडा या कच्छा क्रिकेट में तबदील हो गया. टीवी आ गया. टीवी रंगीन हो गया. रिमोट कंट्रोल आ गया. सब्र कम हो गया. विज्ञापन बढ़ गये. मैच में स्पीड आ गई. केबल जाने लगा. डिश टीवी आने लगा. टी20 मैचों में अगर कुछ खास है तो वह रफ्तार है. और रफ्तार ही आज के समय का सबसे निर्णायक पहलू है. पर अपने हिंदी कमेंटेटर अभी भी उसी पुरानपंथ अधकचरेपन से बाहर नहीं निकले. वे अभी भी अंधे धृतराष्ट्र को महाभारत का आंखों देखा हाल सुना रहे है. उन्हें अभी भी लग रहा है कि लोग नसबंदी करवा कर फ्री रेडियो लेकर उनकी आवाज का जादू बिखेरे जाने की बेसब्र प्रतीक्षा में हैं. उन्हें अभी भी लग रहा है कि लोगों के पास जाने के लिए कोई भी और जगह नहीं है. वे अभी भी राष्ट्रभाषा का अलाउंस से खैनी खाते हुए देश की सेवा करने का गुरूर पाले हुए हैं. वे हिंदी की सेवा कर रहे हैं. वे देश की सेवा कर रहे हैं. वे प्रसार भारती की सेवा कर रहे हैं. वे हिंदी में स्नातकोत्तर, एम. फिल या पीएचडी हैं और उनके पास कोई ईश्वरीय पट्टा है जिसके तहत वे जैसे मन में आए देश के कानों में आंखों देखे क्रिकेट की धूल झोंक सकते हैं. हिंदी कमेंटरी पर सबसे बड़ा कमेंट उसी के कमेंटेटर हैं. वे विलंबित खयाल में पढ़े गये धीमी गति के समाचार है. वे बैलगाड़ी पर बैठकर एक स्पीडवे का हालाते हाजरा कर रहे हैं क्योंकि राजभाषा का दर्जा होने के कारण उनके पास लाइसेंस है हिंदी और क्रिकेट का बारह बजाने का. वे सरकारी इमारतों की पीकरंगी दीवारों की तरह बदरंग, उनकी टेबल की तरह टूटे, उनकी कुर्सियों की तरह पुरानी और उनकी फाइलों की तरह धूल खाई बातें कर रहे हैं. वे बूढ़े हो चले हैं. आपको पिछली बार ऐसा कब लगा जब हिंदी कमेंटरी में समय रहते कोई काम की, सूझबूझ की, दिलचस्पी भरी, प्रजेंस ऑफ माइंड का सुबूत दिया ? अजगर को याद नहीं पड़ता. वे भयावह तरह से नाखुश लोग हैं और साफ लगता है कि उनका यकीन डार्विन के विकासवाद पर नहीं. विचारों, कल्पना, सूझबूझ के अकाल और सूखे से ग्रस्त. वे मनुष्यता के ख़िलाफ अपराध हैं. हिंदी कमेंटरी में न तो कोई कल्पना शीलता है और न ही ये समझ पाने की कोई कोशिश कि लोगों को वह बताया जाए जो उन्हें नहीं पता. वे वही सब कुछ बता रहे हैं, जो 10 साल के बच्चे ने भी देखकर समझ लिया है. बच्चा रवि शास्त्री या नवजोत सिद्धू या सुनील गावस्कर को सुनना चाहता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि वे अंग्रेजी बोलते हैं, बल्कि इसलिए वे जो कहते हैं, उसका मायने होता है, उससे बच्चे की जानकारी बढ़ती है, जो वह कहते हैं वह दिलचस्प है. कई बार बहुत मजाकिया भी. इसलिए जब दूसरी पंक्ति के क्रिकेटरों को हिंदी कमेंटरी बॉक्स में बुलाया जाता है, तो वे भी मुख्य कमेंटेटरों को देखकर मनहूसियत फैलाने लगते है. उन्हें लगता है इधर यही रिवाज है. अजगर की तरह क्या आपको भी ऐसा लगता है कि अगर मनिंदर सिंह पर ड्रग्स लेने के आरोप सही हैं, तो कहीं हिंदी कमेंटरी के कारण तो नहीं. ऐसा नहीं है कि वे ऐसा नहीं कर सकते थे. अरे जावेद जाफरी को सुनिये ताकेशीज कैसल में भयानक दिलचस्प बकवास करते हुए. अजगर उसे उस बकवास के कारण ही देखता है. उसमें तेजी है, कल्पना शीलता है, दर्शकों से राब्ता जोड़ने की कोशिश है, मजा है, प्रजेंस ऑफ माइंड है, अच्छी कॉपी है. हिंदी कमेंटरी पुनर्जीवन कमीशन बनाकर जावेद जाफरी को उसका हैड बना देना चाहिए. आप देखें तो नवजोत सिद्धू, रणवीर और विनय ये तीनों हिंदी का सॉफ्टवेयर अंग्रेजी में बेच रहे हैं. नवजोत को ही देखो तो कहां से कहां पंहुच गया. जितना उसका बैट नहीं चला, उससे ज्यादा जुबान चली. उसने पटियाला के देसी बिंबों को अंग्रेजी में ढाल कर पहले पैसा कमाया, फिर सांसदी, फिर एमएसएन पर सिद्धुइज्म पर पेज, फिर लॉफ्टर शो में मंहगा फरनीचर बनने का मौका, और फिर एमटीवी में अपनी नकल करवाने का सम्मान. बातन हाथी पाइए.और अपना हिंदी का कमेंटेटर भयानक लद्धड़ तरीके से पूरे देश के सामने हिंदी और कमेंटरी की आर्ट का बेसुरा मर्सिया गा रहे हैं. उनके पास अभी भी जो आदर्श हैं- सुशील दोषी और जसदेव सिंह- दोनों आकाशवाणी के दिनों के हैं. मुझे तो उनके नाम भी नहीं पता, क्योंकि वे सारे भर्ती का माल हैं. और वे इसके लिए जिम्मेदार नहीं है. हिंदी की कमेंटरी के प्रतिमान ही ऐसे स्थापित हो गये हैं, कि वे इस मंच पर सिर्फ मुरदा होने की एक्टिंग कर सकते हैं. और प्रसार भारती के लाख ऑटोनामस होने, करोड़ों का सरकारी और टैक्स पेयर का रुपया लेने के बाद भी वे उसका स्वाहा करने में तन मन पूरा लगा देते हैं. वे रोमांच के दारुण रोड़े हैं. बेतरतीब स्पीडब्रेकर. वे अजीब विद्रूपता के आइटम नंबर हैं. म्यूजिक आगे जा रहे है, लद्धड़ नचनिये पीछे पीछे हांफते हांफते दौड़ रहे हैं. टेलीग्राम की तरह अप्रासंगिक और गैरजरूरी. वे अतीत की आत्माएं हैं जो वर्तमान में भटक आई हैं. और गलत योनि में प्रवेश करने की कोशिश कर रही है. उधर से अंदर आना मना है.